भारत में जातिगत जनगणना का सीधा सम्बन्ध भारतीय समाज की संरचना से है, जो सीधे जन्मगत ऊंच-नीच की ग्रन्थि से जुड़ा हुआ है। भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज अपनी धार्मिक रूढिय़ों और परंपराओं के चलते जाति बहुल समाज है, जिसमें धार्मिक स्तर पर सामाजिक असमानता को जाति आधारित मान्यता प्रदान की गई है। हिन्दू समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था जातिगत प्रणाली को विस्तार देती है। पूरी दुनिया में केवल भारतीय उपमहाद्वीप ही ऐसा क्षेत्र है, जहां मनुष्य की सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान उसकी जाति को देख कर भी की जाती है। जहां तक आर्थिक असमानता का सवाल है तो यह विश्वव्यापी समस्या है मगर भारत के सन्दर्भ में आर्थिक असमानता भी जातियों से जाकर जुड़ जाती है और कथित नीची जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति के शैक्षिक व आर्थिक रूप से सम्पन्न हो जाने के बावजूद सामाजिक भेदभाव उसका पीछा नहीं छोड़ता है। क्या इस गैर बराबरी को जातिगत जनगणना करा कर मिटाया जा सकता है?
जातिगत जनगणना को सामाजिक न्याय से लोकतन्त्र में यदि नहीं बांधा जाएगा तो समाज बनेगा वह सदियों से कथित नीची जातियों पर हो रहे अत्याचार को बदस्तूर जारी रखेगा। भारत में विकट स्थिति यह है कि इसके समाज में पेशे या काम के आधार पर भी जातियों की उत्पत्ति हुई है। जिसकी वजह से कुछ कथित ऊंची जातियों के लोग कथित नीची जातियों के लोगों का सदियों से शोषण करते आ रहे हैं। यह शोषण केवल आर्थिक नहीं है बल्कि चौतरफा है। इसके लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर की जीवन कथा पढ़ लेना ही काफी है। मगर सामाजिक न्याय का कार्य केवल कथित ऊंची जातियों के प्रति घृणा फैला कर नहीं किया जा सकता बल्कि लोकतान्त्रिक भारत में हिन्दू व भारतीय समाज में खुद को ऊंची जाति का मानने वाले लोगों को सामाजिक बुनावट का आइना दिखा कर ही किया जा सकता है। इसके विपरीत यह तर्क दिया जाता है कि जातिगत जनगणना करा कर हम भारत में जातिवाद की जड़ें और गहरी करेंगे पूरी तरह असंगत है क्योंकि हिन्दू समाज की जाति संरचना का असर भारतीय उपमहाद्वीप में अन्य धर्मों पर भी पड़ा है। अब हमें यह सोचना होगा कि आज का भारत बहुत बदल चुका है और पिछड़े वर्ग के समाज की अपेक्षाएं भी बदल चुकी हैं अत: जातिगत समाज के आधार पर सत्ता में भागीदारी की आकांक्षा भी बढ़ रही है। यह आकांक्षा संविधान में दिए गए बराबरी के हक का प्रतिनिधित्व ही करती है।