Tuesday, January 14, 2025 |
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विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन का बढ़ता आर्थिक बोझ

by Business Remedies
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punit jain

भारत सहित विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन का आर्थिक बोझ दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। इसके चलते वे स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी जरूरी सेवाओं पर खर्च करने के बजाय कर्ज चुकाने पर मजबूर हैं। वर्ष, 2022 में जलवायु वित्त का सिर्फ 28 फीसदी उन्हें ग्रांट के रूप में दिया गया। बाकी कर्ज के तौर पर मिला। इससे इन देशों पर कर्ज का भारी बोझ बढ़ गया। सम्मेलन के दौरान अमीर देशों ने 2035 तक विकासशील देशों को सालाना 300 अरब डॉलर देने का वादा किया था। लेकिन, यह रकम वर्ष, 2022 में विकासशील देशों की ओर से चुकाए गए 443.5 अरब डॉलर के कर्ज से बहुत कम है। भारत इस डील को लेकर अमीर देशों की बखिया भी उधेड़ चुका है। इस समझौते में 2035 तक सार्वजनिक और निजी स्रोतों से सालाना 1.3 ट्रिलियन डॉलर जुटाने का व्यापक लक्ष्य भी शामिल था। अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह वह रकम है जो जरूरी है और विकासशील देश अमीर सरकारों से चाहते हैं। हालांकि, समझौता यह बताने में विफल रहा कि 300 अरब डॉलर में से कितना कर्ज के रूप में और कितना अनुदान के रूप में आएगा या जलवायु-संवेदनशील देशों के कर्ज संकट को कैसे दूर किया जाएगा। इससे विकासशील देशों, विशेषकर जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों की चिंता बढ़ गई है। वे कर्ज के जाल में फंसते जा रहे हैं। इससे उनकी अर्थव्यवस्था और जनता का जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। इस समस्या का समाधान अनुदानों की संख्या बढ़ाना, कर्जों को आसान बनाना और कर्ज-मुक्ति के उपाय अपनाने होंगे। एक तरफ जलवायु परिवर्तन की बढ़ती लागत विकासशील देशों के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। उन्हें कर्ज चुकाने के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी जरूरी सेवाओं पर खर्च कम करना पड़ रहा है। इसके लिए लगातार विकासशील देश कड़ा विरोध भी करते रहे हैं। उन्होंने इसे रिकवरी ट्रैप बताया है। कर्ज चुकाने के चक्कर में विकास के काम रुक जाते हैं। आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्ज लेने के साथ चक्रवात, बाढ़ और सूखे जैसी बढ़ती जलवायु चुनौतियों ने इन देशों को और भी अधिक उधार लेने के लिए मजबूर किया है। इस तरह के कर्ज विकासशील देशों के पहले से ही अत्यधिक कर्ज बोझ को बढ़ाते हैं। ये उन देशों के लिए बिल्कुल अस्वीकार्य है, जिनकी जलवायु संकट पैदा करने में बहुत कम भूमिका थी।



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