जीवन जीने का पहला आदर्श वचन यही है कि हम जब तक जीये आदर्श जीवन जीये। ऐसा तभी संभव है जब हम स्वभाव से संतोषी, त्यागी, ईमानदार, कर्तव्य निष्ठ और सत्य के साथ रहे। मनुष्य को अपनी स्वयं की शक्ति को पहचानना और उसके साथ ही जीना चाहिए। शक्ति ही जीवन है, कमजोरी मृत्यु है। मानव शक्ति का सर्वोच्च प्रतीक विनम्रता है। मनुष्य को अहंकार, ईष्र्या, घृणा, लोभ, कामना, द्वेष, द्वंद्वों आदि से हमेशा दूरी बनाकर रखनी चाहिए। अज्ञान के कारण मनुष्य में ये सभी दुर्गुण पनपते हैं। प्रत्येक मनुष्य को ज्ञान अर्जित करना चाहिए। जो भी ज्ञान प्राप्त करें वह व्यावहारिक भी होना चाहिए। व्यावहारिक ज्ञान से ही हम जीवन के वास्तविक मार्ग को समझ सकते हैं। इससे मनुष्य अपने जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझा सकता है, क्योंकि कठिन क्षणों में यह हमारा साहस, धैर्य और संयम को बनाए रखने में मदद करता है।
मनुष्य के मन-मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार रहते हैं उसी के प्रभाव से जीवन की दिशाएं बनती रहती हैं और प्रत्येक विचार पर हमारी शिक्षा का गहरा असर पड़ता है। मनुष्य का कर्म ही उसका धर्म है। कर्म ही हमारे जीवन को गति देते हैं और हम जैसे कर्म करते हैं वैसा ही फल हमें मिलता है।
गीता में कहा गया है कि शुभ कर्म करने वाले श्रेष्ठ लोक को प्राप्त होते हैं और अशुभ कर्म करने वालों को नर्क की दुर्गति मिलती है। शुभ और अशुभ कर्मों की कई परिभाषाएं हैं, लेकिन सरल शब्दों में कहें तो जिस काम को करने में मनुष्य को भय, शंका और लज्जा का अहसास हो उसे अशुभ समझना चाहिए और जिन कार्यों में आनंद, उत्साह और प्रेम का अनुभव हो उसे शुभ समझना चाहिए। हमारे सभी धर्म-काव्य ग्रंथों में जीवन में प्रेम की महत्ता दर्शाई गई है। प्रेम के अभाव में मनुष्य के जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को प्रेम का अधिक से अधिक प्रसार करना चाहिए।
