मोदी विद्धान हैं इसमें दोहराय नहीं। विद्धान व समझदार में यही फर्क होता है कि विद्धान समझदारी को साथ रखता है, तभी विद्धान कहलाता है। अन्यथा सब निरर्थक होता है। मोदी में राजनीतिक विद्धता भी काफी है। राजनतिक संघर्ष तभी होता है जब व्यक्ति खुद के प्रति अधिक स्नेह रखता है। ऐसे में चेतना सिकुड़ती है। अच्छाईयां जब क्रियाशील होती है तो वहीं नैतिकता कहलाती है।
सरकार ‘राईट टू प्राईवेसीÓ नागारिकों का मूल अधिकार है या नहीं को लेकर न्यायालय में है। सरकार इसकी संवैधानिक वैधता से इंकार भी कर रही है। ये एक नैसर्गिंक अधिकार है। निजता के अधिकार के बिना मौलिक अधिकारों की प्रासंगिकता ही नहीं है। दूसरी ओर जागरुकता के ऐसे अभावों में इसका दुरुपयोग भी देखने को मिल रहा है। ऐसे में सरकार पर भी गोपनीयता-सूचनाओं की सुनिश्चितता रखने की जिम्मेदारी आएगी। इसके अलावा मोदी द्धारा नोटबंदी इसीलिये की गई कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लडऩी थी। मोदी में स्वयं का विश्वास तो था ही क्योंकि उन्हें जनता का भी पूरा विश्वास था। इसीलिये उन्होंने ये कदम उठाया। मोदी द्वारा जीएसटी भी सभी हित धारकों को ध्यान में रखते हुए लाया गया। जीएसटी में राज्यों को भी साथ लिया गया है तथा संशोधित उपाय भी किये गये है। लोग व कई आलोचक इसे बढ़ा-बढ़ाकर नाम मात्र को विरोध पेश कर रहे हैं। वैसे जीएसटी की समीक्षा और बेहतर हो सकेगी आगामी दो-तीन वर्षों में। मोदी का जीएसटी सर्वश्रेष्ठ नहीं तो काफी बेहतर तो है ही। ज्यादातर विवाद १२ और १८ फीसदी की दरों के बीच आ रहा है। अत: इसे १६ के आसपास रखकर निर्णय लिया जा सकता है। दुनिया में कनाडा के अलावा ब्राजील, ऑस्टे्रलिया, रुस व चीन में भी जीएसटी है। जानने के लिये कहा जा सकता है कि वैट मूल रुप में किसी टर्नओवर टैक्स से अलग होता है। टर्नओवर कर कुल उत्पादन पर लगने वाला शुल्क है। एक बारगी इनपुट टैक्स क्रेडिट मिल जाने के बाद ये वैट बन जाता है। पहले कारणों से सेवाकार कभी भी वैट नहीं बन पाया। बाद में ये इनपुट क्रेडिट से वैट बना। जो ना तो केन्द्रीय उत्पाद शुल्क है और ना ही सेवाकार या वैट। ये इसी पर निर्भर था कि इनपुट टैक्स किया जाता है या नहीं। कुछ उत्पाद बाहर रखे गये हैं जिसमें पेट्रोलियम, शराब व अचल संपत्तियां हैं। इन्हें यंू बाहर रखा गया है ताकि राज्य जरुरतों के मुताबिक कुछ राजस्व हासिल कर सकें। अचल संपत्ति ना तो वस्तु है और ना ही सेवा। इन पर जीएसटी लगाने के लिये व्यापक संविधान संसोधन वैधता की जरुरत होगी। जहां राज्य सूची के ६३,५४,४९ व १८ तथा केन्द्र सूची के प्रावधान ८४ को भी शमिल करना पड़ेगा। जो अभी व्यवहार्य तथाा वंाछित भी नहीं है। देश में कारोबारी मॉडल में भी अभाव है काफी कुछ पारदर्शिता का। वर्तमान में मोदी सरकार श्रम सुधारों के बारे में सोच रही है। न्यूनतम वेतन पूरे देश में एकसमान रखा जाये, इस पर प्रयास कर रही है। वर्तमान नई नीतियां व विकास की अवधारणा इंसानी समाज के ताने बाने को मूलत: बदलने वाली है। क्योंकि पूरे विश्व में अभी भूमंडलीयकरण के नाम पर पंूजीवाद की आवधारणा स्थापित हो रही है। अत: पूजीवाद विस्तार तथा प्राकृतिक संकटों को भी देखा जाना है। लोगों में ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़ चल रही है। लोग तो प्रकृति का ही दोहन करने में लगे हैं। आगे दुष्परिणाम ना हो इसका भी विशेष चिंतन है। श्रम क्षेत्र में लेबर के भी नए शब्द मीनिंग्स आ गये हैं। एक तो सॉफ्ट लेबर एवं दूसरा हार्ड लेबर। सॉफ्ट लेबर में कम्प्यूटर-एसी वाले लोग आते हैं। वे सभी मशीनों के गुलाम है। भले ही इससे आगे विकृतियां आए। घर बार सब केवल रुपया कमाने में लगे हुए हैं। लाभ कमाने की अंधी दौड़ एक सामाजिक विखंडन की दौड़ है। संयुक्त परिवारों का जमाना लदने लगा है। भाई-भाई से जुदा है, बेटा मां बाप सं जुदा है। ऐसी विघटन की गति और भी तेज होने लगी है। वहीं महानगरों में पिताजी संडे वाले पापा कहला रहे हैं।
ये सारे मामलों श्रम की सामाजिक संरचना से जुड़े हैं। इसका संकट रुपये पैसे से भी हल नहीं हो सकता। राजनैतिक नेता, नौकरशाह व कारपोरेट जगत के जाने माने लोग तो फिलहाल अपनी उपलब्धियां गिनाने में ही व्यस्त हैं। श्रम दिवस भी आजकल मात्र तीज त्यौहारों की तरह मनाया जाता है जहां श्रम कानून व सिद्धांतों के होते हुए भी सूटबूट टाई लगाकर अंग्रेजी बोलने वाले को श्रमिक कहलाना ही गंवारा नहीं है। पीएम मोदी एक विद्धान तथा समझदार व्यक्ति हैं जो वाकई भारत को धर्म, राजनीति, अर्थनीति, सामाजिकता जानते हुए भारत का नवनिर्माण करने में लगे हैं। यही उनका विश्वास जनता का विश्वास है।
