Saturday, May 24, 2025 |
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भक्ति के बिना जीवन व्यर्थ

by admin@bremedies
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कोई व्यक्ति बुद्धिजीवी और अपने क्षेत्र में पराक्रमी हो सकता है, लेकिन वह भक्ति नहीं करता तो उसका जीवन व्यर्थ है। मनुष्य के जीवन में दो मार्ग हैं। ज्ञान और भक्ति मार्ग। कोई व्यक्ति बुद्धिजीवी और अपने क्षेत्र में पराक्रमी हो सकता है, लेकिन वह भक्ति नहीं करता तो उसका जीवन व्यर्थ है। मनुष्य में भक्ति का समावेश हो जाए तो उसका जीवन धन्य हो जाता है। कबीरदासजी ने कभी कलम नहीं पकड़ी, इसके बावजूद अपनी भक्ति की शक्ति से उन्होंने कई महान कृतियों की रचना कर डाली। इसी तरह सूरदास, नानक, मीरा आदि ने भी सच्ची भक्ति की। भक्ति में असीम शक्ति होती है। भक्ति के बगैर परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि भक्त की भक्ति में निरंतरता न हो और वह पूर्ण रूप से अर्पित न हो तो वह प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता। भक्त के अंतर्मन, चित्त, विचार इत्यादि में सच्ची श्रद्धा जाग्रत होनी चाहिए तभी वह प्रभु को प्राप्त कर सकता है। भक्ति तर्क पर नहीं, श्रद्धा और विश्वास की नींव पर टिकी होती है। ऐसा कहा गया है कि मनुष्य जैसा विचार करता है वैसा ही बन जाता है, लेकिन इससे भी अधिक सत्य यह है कि मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है उसी के अनुरूप उसका निर्माण होता है। भक्ति प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव है जिससे हमारे मन में यह विश्वास जगता है कि उसकी शरण में हम सदा शांत, संतुष्ट, तृप्त, तटस्थ, सुरक्षित व सदाचारी बने रहेंगे।
भक्ति कई प्रकार से की जा सकती है। कोई साधना के माध्यम से, कोई प्रभु के प्रवचनों की सुगंध फैलाकर, कोई भजन-कीर्तन गाकर तो कोई गरीबों-असहायों की सहायता करके भक्ति करता है। भक्त की भक्ति में इतनी शक्ति होती है कि जितनी चाह से वह प्रभु की ओर बढ़ता है, प्रभु दोगुनी चाह से उसकी तरफ आकर्षित होते हैं। शबरी के बेर में प्राकृतिक नहीं, बल्कि भक्ति भाव की मिठास थी। इसलिए जब श्रीराम को राजमहल का भोजन परोसा गया तो वे कहते हैं कि राजरसोई बहुत स्वादिष्ट बनी है, लेकिन फिर भी इसमें वह स्वाद नहीं जो शबरी के बेर में थे। भक्त की भक्ति में आस्था और विश्वास परम तत्व हैं और इनके अभाव में भक्ति कतई संभव नहीं। मनुष्य का ज्ञान, बौद्धिकता और कर्म एक मार्ग है, लेकिन भक्ति उसका लक्ष्य व उद्देश्य है। मनुष्य का प्रथम व अंतिम लक्ष्य सेवा ही है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि उनके लिए साधु की कुटिया, भगवान का मंदिर, मानव सेवा, अध्यात्म, श्रद्धा और नैतिक बल में कोई अंतर नहीं है। जो व्यक्ति इस भाव से भक्ति करता है, प्रभु उसी से प्रसन्न रहते हैं।



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