हेल्थ डेस्क- हरड़ या हरीतकी का वृक्ष 60 से 80 फुट ऊंचा होता है। प्रधानत: यह निचले हिमालय क्षेत्र में रावी तट से बंगाल आसाम तक लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसकी छाल गहरे भूरे रंग की होती है तथा पत्तों का आकार वासा के पत्तों जैसा होता है। सर्दियों में इसमें फल आते हैं जिनका भंडारण जनवरी से अप्रैल के बीच किया जाता है।
मौटे तौर पर हरड़ के दो प्रकार हैं- बड़ी हरड़ और छोटी हरड़। बड़ी हरड़ में सख्त गुठली होती है जबकि छोटी हरड़ में कोई गुठली नहीं होती। वास्तव में वे फल जो गुठली पैदा होने से पहले ही तोड़कर सुखा लिए जाते हैं उन्हें ही छोटी हरड़ की श्रेणी में रखा जाता है। आयुर्वेद के अनुसार छोटी हरड़ का प्रयोग निरापद होता है क्योंकि आंतों पर इसका प्रभाव सौम्य होता है। वनस्पति शास्त्र के अनुसार हरड़ के तीन अन्य भेद हो सकते हैं। पक्कफल, अर्धपक्क फल तथा पीली हरड़। छोटी हरड़ को ही अधिपक्व फल कहते हैं जबकि बड़ी हरड़ को पक्वफल कहते हैं। पीली हरड़ का गूदा काफी मोटा तथा स्वाद कसैला होता है
फलों के स्वरूप, उत्तत्ति स्थान तथा प्रयोग के आधार पर हरड़ के कई अन्य भेद भी किए जा सकते हैं। नाम कोई भी हो चिकित्सकीय प्रयोगों के लिए डेढ़ तोले से अधिक भार वाली, बिना छेद वाली छोटी गुठली तथा बड़े खोल वाली हरड़ ही प्रयोग की जाती है। टेनिक अम्ल, गलिक अम्ल, चेबूलीनिक अम्ल जैसे ऐस्ट्रिन्जेन्ट पदार्थ तथा एन्थ्राक्वीनिन जैसे रोचक पदार्थ हरड़ के रासायनिक संगठन का बड़ा हिस्सा हैं। इसके अतिरिक्त इसमें जल तथा अन्य अघुलनशील पदार्थ भी होते हैं। इसमें 18 प्रकार के अमीनो अम्ल मुक्तावस्था में पाए जाते हैं।
बवासीर, सभी उदर रोगों, संग्रहणी आदि रोगों में हरड़ बहुत लाभकारी होती है। आंतों की नियमित सफाई के लिए नियमित रूप से हरड़ का प्रयोग लाभकारी है। लंबे समय से चली आ रही पेचिश तथा दस्त आदि से छुटकारा पाने के लिए हरड़ का प्रयोग किया जाता है। सभी प्रकार के उदरस्थ कृमियों को नष्ट करने में भी हरड़ बहुत प्रभावकारी होती है।
अतिसार में हरड़ विशेष रूप से लाभकारी है। यह आंतों को संकुचित कर रक्तस्राव को कम करती हैं वास्तव में यही रक्तस्राव अतिसार के रोगी को कमजोर बना देता है। हरड़ एक अच्छी जीवाणुरोधी भी होती है। अपने जीवाणुनाशी गुण के कारण ही हरड़ के एनिमा से अल्सरेरिक कोलाइटिस जैसे रोग भी ठीक हो जाते हैं।
